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अब पाठ्यपुस्तकों में पढ़ेंगे ‘आपातकाल’

शब्दार्थ
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87795527-emergency1भारतीय लोकतंत्र की मजबूती की बात तब तक मुकम्मल नहीं होती जब तक आपातकाल के दौर की बातों को इसमें शामिल ना कर लिया जाए। अभिव्यक्ति की आज़ादी छिनने का खतरा तो पैदा हुआ ही और इसके साथ ही एक काला अध्याय भी शुरू हुआ।  26 जून का दिन कई मायनों में अहम होता है,अहम इसलिए नहीं कि इस तारीख के दास्तान में कोई खूबसूरत शब्द दर्ज हैं बल्कि अहम इसलिए कि इस दिन मतलब 26 जून 1975 से लेकर लगभग दो साल तक भारतीय लोकतंत्र को अलोकतांत्रिक ढंग से चुनौती दी गई थी,मगर ये भी इस दिन को स्मृति में संजोए रखने की पूरी वज़ह नहीं है। असली वज़ह लोकतंत्र की रक्षा के लिए उठी वे आवाजे हैं जिन्हें काल कोठरी के भीतर कैद करने की नाकाम कोशिशें हुई। संवैधानिक ढांचा के चरमराने से एक अनिश्चित भय का माहौल कायम हुआ था, फिर भी लाखो लोग लोकतंत्र की रक्षा के लिए डंटे रहे इसीलिए इसे विस्मृत नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए अब आवाज उठ रही है कि आपातकाल की परिघटना को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया जा ताकि यह एक राजनैतिक,ऐतिहासिक और प्रेरणादाई रूप में चीर स्थाई बनी रहे।

आपातकाल के उस दौर के बारे में कहा जाता है कि कि ना कोई अपील थी,ना कोई दलील थी,ना कोई वकील था।प्रेस की आज़ादी छिन ली गई, रासुका,मीसा,और डी.आई.आर लागू कर लाखों लोगों को सलाखो के पीछे धकेल दिया गया।फिर भी उन लोगों ने माफी नहीं मांगी, बल्कि बहुतों ने सत्याग्रह कर के अपनी गिरफ्तारियां दी। जब मार्च 1975 में आपातकाल खत्म हुआ,चुनाव की घोषणा हुई और काँग्रेस को पराजय मिली जिसे सत्ता की तानाशाही के विरूद्ध जनमत के तौर पर देखा जाता है।

इस बार  26 जून को नई दिल्ली में लोकतंत्र सेनानी सम्मेलन हुआ जिसमें देश के सभी हिस्सों से मीसाबंदी उपस्थित हुए थे,इस सम्मेलन में आपातकाल के संस्मरणों को एकत्रित कर साहित्य के रूप में कलमबद्ध करने की बात तो हुई ही साथ ही भाजपा के केन्द्रीय मंत्री अंनत कुमार ने कहा कि ‘’अब आपातकाल की परिघटना को  पाठ्यपुस्तकों में भी सम्मिलित किया जाना चाहिए इस दौरान लोगों को दी गई यातनाएं,और लोकतंत्र की रक्षा के लिए समर्पित लोगों के इतिहास को पढ़ाने से नई पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी।‘’

इस बात को मीसाबंदियों के समक्ष रखने पर ज़रूर भाजपा मंत्री पर कांग्रेस के विरूद्ध राजनीतिक लड़ाई छेड़ने का आरोप भी लगाया जा सकता है लेकिन विस्तृत नज़रिए से देखने पर यह काफी सही ही लगता है क्योंकि वो दौर लोकतंत्र बनाम तानाशाही का था,अगर सही रूप में इसे गंभीरता पूर्वक पाठ्यपुस्तकों में स्थान दिया जाएगा तो इससे सबक मिलेगा और साथ ही लोकतांत्रिक शक्तियों का विकास होगा। ये पहल सकारात्मक क्यों है इस पर लोकतंत्र सेनानी संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष कैलाश सोनी कहते हैं कि ‘’आपात काल को अध्ययन अध्यापन का विषय इसलिए बनाया जाए ताकि लोग सच्चाई जान सकें, फिर कोई आपातकाल लागू करने की सोच भी ना सके।‘’

सचमूच अगर ये मंसा विशुद्ध रूप से राजनीतिक विद्वेश प्रेरित ना होकर लोकतांत्रिक शक्तियों से पैदा हुई हो तो इस मंत्वय का विरोध करना सर्वथा अनुचित ही होगा।

अंनत कुमार इसे पाठ्यपुस्तक में शामिल कराने के पक्षधर इसलिए भी हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार आपातकाल के बहुत सारे साक्ष्यों को नष्ट कर करवा दी गई हैं ताकि लोगों को आपातकाल की हकीकत से दूर रखा जा सके और कांग्रेस के खिलाफ जनमत ना बने।अंनत कुमार पत्रकार कुलदीप नैय्यर के एक लेख का हवाला देते हुए कहते हैं कि ‘’आपातकाल के सारे रिकॉर्ड पहले अभिलेखागार में रखवाया गया था लेकिन अब वे सारे रिकॉर्ड वहां से गायब हैं,कांग्रेस पार्टी की सरकार  ने अपना काला चेहरा छुपाने के लिए ये सब किया है।‘’

इस बात का एक अर्थ तो साफ है कि आपातकाल के वाकए को पाठ्यक्रम के ज़रिए जनता के समक्ष लाए जाने की पैरवी तो चल ही  रही है और इसी बहाने कांग्रेस पर हमला करने की भी तैयारी की जा रही है।

भाजपा के राज्यसभा सांसद और लोकतंत्र सेनानी संघ के संरक्षक मेघराज जैन ‘’कहते हैं कि असलियत तो यही है कि उस दौरान काँग्रेस की सरकार थी इंदिरा गाँधी प्रधान मंत्री थी और इस तानाशाही को उनके द्वारा ही अंजाम दिया गया था,ऐसे में पाठ्यपुस्तकों पर इन तमाम बातों को शामिल करने में कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए।‘’

केन्द्रीय मंत्रियों के बयानों के बाद ये अंदाजा लगाना काफी आसान है कि जल्द ही भारत के सियासत में फिर सरकार और कांग्रेस पार्टा के बीच टकराव होगी,लेकिन इसमें दिलचस्प बात ये होगी कि उन पार्टियों का रूख क्या होगा जो आपातकाल के दौरान जय प्रकाश नारायण के साथ कदम से कदम मिलाकर चले थे,मीसा और डी.आई.आर के तहत कैद किए गए थे। कई दल और व्यक्ति ऐसे हैं जिनका राजनीतिक कैरियर ही इस आंदोलन के बूते शुरू हुआ था.. लेकिन सपा और राजद जैसे दल अर्थात लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह भाजपा के इन केन्द्रीय मंत्रियों और सांसदों से कहां तक इत्तेफाक रखते हैं,ये काफी अहम होगा क्योंकि भाजपा के नीतियों से इनका मतभेद सर्वविदित है परंतु आपातकाल पर इनकी राय क्या एक हो सकेगी, इस पर काफी कुछ निर्भर करेगा क्योंकि कांग्रेस के समर्थन में जाने से राजनीतिक रूप से आपातकाल का समर्थन करना माना जा सकता है।आपातकाल को पाठ्यपुस्तकों में शामिल करवाने की मांग तो अब उठ रही है लेकिन इससे पहले मुलायम सिंह के द्वारा उत्तरप्रदेश में मीसा के तहत बंदी बनाए गए लोगों को लोकतंत्र सेनानी का दर्जा दिया जाना फिर भाजपा शासित राज्यों के द्वारा भी इसको अपनाया जाना एक राजनीतिक सहमती के तौर पर देखा जाना चाहिए। जब समाजवादी पार्टी की सरकार की इस पहल को भाजपा की सरकारें मान सकती हैं तो ऐसे में पाठ्यपुस्तक के मुद्दे पर इन दलों का  झुकाव भी भाजपा सरकार की ओर हो सकने की संभावना प्रबल होती दिखाई दे रही है।

ऐसे में असहमती की केन्द्रबिंदू पाठ्यक्रम में आपातकाल के प्रस्तुतीकरण को लेकर ज़रूर हो सकता है क्योंकि पहले भी भाजपा सरकार पर शिक्षा के भगवाकरण करने का आरोप लगता रहा है, साथ ही आपातकाल के दौरान आर.एस.एस कार्यकर्ताओं की भी भूमिका होने से ये भी आरोप लग सकता है कि पाठ्यपुस्तक में केवल आर.एस.एस को ही महिमामंडित किए जाने के लिए ये मांग उठाई जा रही है।

गुरूघासीदास केन्द्रीय विश्वविद्याल के सामाजिक विज्ञाम संकाय की डीन डॉ. अनुपमा सक्सेना कहती हैं कि ‘’Personally I belleve that hiding the historical facts or trying to avoide them is more dangerous then let throw it in the public sphere with open debate. Not with open debate,read for open debate.’’

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